Saturday, June 13, 2009

Ghazal


ग़ज़ल

वो सर्व क़दी है न वो गुंचा दहनी है

गुलशन में न वो तेरी सी शीरीं सुखनी है

दरिया पे सितारों की ये परतौ फिगनी है

या सीनए मुश्ताक़ पे नेजे की अनी है

है शौक़ की आमद से बहारों पे नया रंग

महकी हुई कुछ और तेरी गुल बदानी है

दिल से ही मिटा दी है शबे वस्ल की हर याद

तब जा के शबे हिज्र शबे हिज्र बनी है

गुम गुश्ता रहा दिल तो बहुत दूर वतन से

रह कर भी वतन में ये अजब बे वतनी है

रास आएगा तनवीर इसी मुल्क का मौसम

है धुप यहाँ तेज़ मगर छाँव घनी है

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