Tuesday, June 23, 2009

حیرت


अपने नाटकों में हैरत की तलाश बची हुई है. हैरत का ऐसा ही एक लम्हा था जब 1945 में मैंने वल्लतोल को कथकली में आते हुए देखा था. यवनिका के पीछे वो पहले अपने नख दिखाते रहे बहुत देर तक.फिर पांव का कुछ हिस्सा दिखाया. फिर अपने कलश का फुन्न उछाला. उन्हों ने लगभग 20 मिनट लगाए पर्दा उठाने में और जब पर्दा उठा तो सामने हनुमान खड़ा था. मुझे एहसास हुआ कि अगर खुद को इस तरह टुकड़े-टुकड़े में नहीं दिखाते तो उतना असर नहीं होता. ऐसा ही एहसास रोम जा कर माइकल एंजेलो कि पेंटिंग देख कर हुवा था. टुकड़े-टुकड़े में ही पेंटिंग का हुस्न दिखाई दिया था. हर कला में एक हैरत के छण होते हैं, उन्हों ने ही मेरी मदद कि है. जब तक थिएटर करता रहूँगा, हैरत ज़दा होने और हैरत ज़दा करने का सिलसिला चलता रहेगा. हैरत के उन लम्हों को क्रिएट करना किसी प्रोडक्शन का एक ज़रूरी अंग है. इसी में जादू है. अगर वो छूटा तो समझो नाटक करना बेकार है.
हबीब तनवीर

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